बदनावर विधानसभा चुनाव
हार जीत में यह कारण रहेंगे जिम्मेदार...
विश्वाससिंह पंवार
बदनावर। विधानसभा चुनाव में मतदान के बाद उम्मीदवारों की हार जीत को लेकर चलताऊ एवं गंभीर चर्चाएं विश्लेषण किया जाने लगा है। पार्टियों व प्रत्याशियों के समर्थक जीत हार पर बेबाक तरीके से अपनी राय देने लगे हैं।राजनीतिक समझ के जानकारों के अनुसार उम्मीदवारों की जीत हार में विभिन्न कारण महत्वपूर्ण रहेंगे। यदि कांग्रेस प्रत्याशी राजवर्धनसिंह दत्तीगांव जीतते हैं तो इसके पीछे भी कई वजह होगी जिनमें उनकी उज्जवल छवि व सभी सहज सरल व परंपरानुसार कार्यकर्ताओं से झुक कर नमन करने का स्वभाव प्रमुख है।उनमें मिलते वक्त किसी तरह की अकड़ या अहम नहीं झलकता है और यही उनकी बड़ी खासियत है।
उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्होंने कभी किसी का भला नहीं किया तो बुरा भी नहीं किया है। राजनीतिक द्वेषतावष विरोधी का भी नुकसान नहीं किया। यहां 20 साल से राजनीति में सक्रिय रहते हुए विधानसभा क्षेत्र के हर एक गांव में छोटे बड़े सभी पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं से पहचान बनाई और उन्हें नाम से जानते पुकारते हैं।अपने पिता के स्वभाव के उलट उनकी छवि है। वे कभी सार्वजनिक रूप से गुस्से का इज़हार नहीं करते।
इस बार यहां जातिवाद की हवा भी धीमी गति से चली किंतु इसका लाभ उन्हें अन्य उम्मीदवारों की तुलना में अधिक मिला। राजपूत वोट गत चुनाव में भाजपा प्रत्याशी शेखावत व दत्तीगांव के बीच बट गए थे जो इस बार बड़ी तादाद में दत्तीगांव की ओर मुड़े हैं। यही नहीं पाटीदार व मुस्लिम वर्ग के मतदाताओं का झुकाव भी कांग्रेस की ओर दोबारा हुआ है। पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार वे पार्टी के कई प्रभावी नेताओं की नाराजगी व निष्क्रियता दूर कर अपने पक्ष में सक्रिय करने व भाजपा सरकार के खिलाफ किसान युवा व महिला वर्ग के आक्रोश को भुनाने में भी सफल रहे। कई बार ऐसा लगा कि कार्यकर्ता दत्तीगांव की अपेक्षा भाजपा सरकार की नीतियों से परेशान हो उसके खिलाफ प्रचार में जुटे हैं। दत्तीगांव ज्योतिरादित्य सिंधिया से अपनी निकटता के कारण भी जनमानस में चहेते बनने में कामयाब रहे। उन्होंने पिछले चुनाव में मिली हार से सबक लेकर गलतियां सुधारी व बूथ मैनेजमेंट पर ध्यान देकर स्थानीय कार्यकर्ताओं पर भरोसा कर उन्हें विभिन्न जिम्मेदारियां सौंपी गई। स्थानीयवाद का जवाब देने में भी सफल रहे और इस मुद्दे को बड़ी शालीनता से समझाया। यदि दत्तीगांव हारते हैं तो इसमें शिवराज फेक्टर की भी अहम भूमिका रहेगी। फिर भी प्रचार के दौरान कम समय मिलने से वह हर गांव में कार्यकर्ताओं से नहीं मिल पाए। बीमारी के कारण बीते 3 साल से उनका संपर्क बहुत सीमित हो गया था पर इससे उनके प्रति नाराजी नहीं बल्कि सहानुभूति ही रही। यह भी कहा जाने लगा है कि भाजपा के बागी प्रत्याशी राजेश अग्रवाल के मैदान में रहने से उनकी जीत पक्की मान लेने से अपेक्षित खर्च भी नहीं कर पाए।जिसे चुनाव में मतदाताओं को अपनी ओर खींचने में जरूरी माना जाता है। उनकी जेब में बिच्छू होने का भी कार्यकर्ता महसूस करते हैं। कई बार अति आत्मविश्वास व गलतफहमी के शिकार हुए हैं। उनसे हमेशा जी हुजूरी वालो से घिरे रहने व कार्यकर्ताओं के फोन नहीं उठाने की शिकायत भी रहती है। खरी खरी सुना ने वह अपनी कमजोरियां बताने वाले समर्थकों की पूछ परख नहीं होती। ना ही उनसे सलाह मशवरा किया जाता है। यह दर्द कई बार बातचीत में पुराने घाघ नेता व कार्यकर्ता बयान करते हैं। इस बार उन्हें वरिष्ठ नेता मोहनसिंह बुंदेला का भरपूर सहयोग नहीं मिलना वह मतदान से एक दिन पहले वरिष्ठ नेता जी पी सिंह तथा उनके पुत्र अभिषेकसिंह को पार्टी से निष्कासित करना भी चुनावी वैतरणी पार करने में आड़े आ सकता है। भाजपा की तुलना में कांग्रेस व निर्दलीय प्रत्याशी द्वारा नगदी दारू व अन्य सामग्री बांटने की शिकायतें अथवा चर्चा बाजार में नहीं के बराबर हुई।
यदि भाजपा प्रत्याशी भंवरसिंह शेखावत की विजय होती है तो उसमें गरीब तबके तक शिवराज सरकार की विभिन्न जनकल्याणकारी योजनाओं का देर सवेर लाभ पहुंचना प्रमुख कारण रहेगा और इससे एससी एसटी वर्ग का समर्थन भी काफी अधिक मात्रा में भाजपा को इस बार मिला है। यही नहीं शेखावत 5 साल में करोड़ों के विकास कार्य व बड़ी योजनाएं लाने में कामयाब रहे और उनका हर जगह प्रचार किया। अभी चुनाव के दौरान 1800 करोड़ की नर्मदा प्रोजेक्ट को भी जमकर भुनाया गया है। उनका कहना है कि आजादी के बाद जितना विकास नहीं हुआ उससे कई गुना अधिक पिछले 5 साल में किया है। उनकी जीत में पार्टी संगठन के कार्यकर्ताओं व आर एस एस के स्वयंसेवकों की बड़ी भूमिका मानी जाएगी। किंतु हारने की स्थिति में भी कई कारण गिनाए जा सकते हैं।उनमें सबसे खास मुद्दा स्थानीय वाद का है जो उन्हें इस बार काफी महंगा पड़ सकता है। चुनाव में उनका अति आत्मविश्वास तो हार के लिए जिम्मेदार रहेगा ही पार्टी के निष्ठावान व समर्पित कार्यकर्ताओं से लगातार दूरी व उनका विश्वास अर्जित करने में विफल रहना भी शामिल है। स्थानीयवाद के नाम पर वरिष्ठ नेताओं की निष्क्रियता वह पुत्र मोह से ऐसे कार्यकर्ताओं की दूरी रहना भी इन कारणों में शामिल है। उनकी मुंहफट जवाब देने की छवि भी लोगों को नागवार गुजरती है। संगठन में अपनी ओर से जिम्मेदार व मेहनती लोगों को पद नहीं देकर ऐसे नेताओं को पदों पर बिठाया गया जिनका जनाधार नहीं के बराबर है। कई नेताओं को अगल-बगल रखने से भी कार्यकर्ता बिदकते रहे।उन्हें कान का कच्चा भी माना जाता है जो किसी मुह लगे नेता की बात मानकर निष्ठावान लोगों की सलाह को नकार देते हैं।उन्होंने अधिकारी वर्ग की बात को ही महत्व देकर कार्यकर्ताओं की जायज मांगों को भी टाल दिया व लगभग अनसुना कर दिया ।
मीडियाकर्मियों से भी दूरी बनाकर रखी। यही नहीं साफ-सुथरी छवि के नेताओं व नागरिकों से भी मिलकर कभी अपनी कमजोरियों व खामियों को दूर करने का प्रयास नहीं किया। उनका यहां नहीं रहना व इंदौर से अप डाउन करना भी चर्चा में रहता है। बदनावर नगर के विकास के लिए उन्होंने अपनी सार्वजनिक घोषणा के बावजूद एक धेला भी नहीं दिया। गांव में भी कार्यक्रमों में घोषणा करने पर भी विकास के लिए राशि नहीं देने पर अभी प्रचार के दौरान ग्रामीणों के मुखर विरोध का सामना करना पड़ा। प्रचार के दिनों में भ्रष्टाचार का मुद्दा भी छाया रहा तथा मतदाता इससे प्रभावित हुए। पिछले चुनाव की तरह इस बार जातिवाद का मुद्दा नहीं चला। स्थानीय करीब एक दर्जन नेताओं तथा उनके कट्टर समर्थकों को इस बार यह पक्का एहसास हो गया था कि यदि शेखावतजी दोबारा जीत गए तो उनकी थोड़ी बहुत चल रही दुकानदारी भी अब बंद हो जाएगी तथा उन्हें कोई घास नहीं डालेगा।इसलिए यह माना जा रहा है कि उन्होंने चुनाव के महत्वपूर्ण समय में चुप्पी साधे रखी तथा शेखावत गुट ने भी उन्हें कभी विश्वास में नहीं लिया।
यहां चुनाव मैदान में भाजपा से बागी बनकर स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में मैदान में डटे राजेश अग्रवाल तथा उनके कट्टर समर्थकों को स्थानीयवाद के नाम पर मतदाताओं का भरपूर समर्थन मिलने का पक्का भरोसा है और उन्हें भोले भंडारी के रूप में सहानुभूति के साथ ही बहुमत मिलना भी तय माना जा रहा है। अग्रवाल को युवा मतदाताओं का हर जगह जबरदस्त समर्थन मिला है और एक जुनून के रूप में वे अग्रवाल से जुड़े हैं। जिन युवाओं को दत्तीगांव व शेखावत अपनी ओर खींचने में विफल रहे उन्हें अग्रवाल ने हाथों हाथ अपने सिर माथे पर बिठा लिया। यही नहीं अग्रवाल के सोशल मीडिया के वार रूम में सबको पीछे छोड़ दिया था। प्रचार के 15 दिन के पहले से ही अग्रवाल सोशल मीडिया में छाए रहे। भाजपा व कांग्रेस के सोशल मीडिया पर अग्रवाल के समर्थकों द्वारा तत्काल अपने चुनाव चिन्ह ट्रेक्टर के साथ कमेंट करने में कभी देरी नहीं की। एक तरह से अग्रवाल सोशल मीडिया पर 24 घंटे छाए रहे। उन्होंने पिछले चुनाव में भी टिकट मांगा था पर नहीं मिलने पर निर्दलीय रूप से फार्म भी भर दिया था किंतु भाजपा द्वारा पक्का आश्वासन मिलने पर वे फार्म उठाकर शेखावत के साथ प्रचार में जुट गए थे। उन्होंने बाद में लगातार टिकट के लिए कोशिश की पर विफल रहे और कार्यकर्ताओं की मांग पर इस बार मैदान में उतर गए। उन्होंने मंडी बोर्ड डायरेक्टर रहते हुए पूरे विधानसभा क्षेत्र में करोड़ों के विकास कार्य करवाए व अपनी पहचान स्थापित की। यही पहचान अभी चुनाव में उनके काम आई है और गांव गांव में बनाए गए समर्थकों के बलबूते पर जीत का दावा किया जा रहा है । उन्हें मिला चुनाव चिन्ह ट्रैक्टर भी ग्रामीण क्षेत्र में खूब चला और किसान वर्ग आसानी से आकृष्ट हुआ। अग्रवाल को सपाक्स व वैश्य समाज का भी सहयोग मिला है तथा मतदाताओं पर स्थानीयवाद का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। अपनी भोले भंडारी की छवि भी चुनाव में खूब काम आई।पहली बार उनके परिवार की महिलाएं वोट मांगने घर से बाहर निकली व अपने राजेश भैया को जिताने की अपील की। प्रचार के दौरान अग्रवाल कांग्रेस व भाजपा पर लगातार हमलावर बने रहे और उन्हें खूब आड़े हाथों लिया। उनकी जीत की गूंज भोपाल तक सुनाई देने की संभावना बनी हुई है। और किसी भी पार्टी को बहुमत के लिए मिलने वाली सीटों की संख्या कम होने पर अग्रवाल जैसे गिने-चुने निर्दलीय विधायकों की पूछ परख पार्टी विधायकों से भी अधिक हो सकती है किंतु यदि हार गए तो यह माना जाएगा कि उन्हें युवा कार्यकर्ताओं द्वारा अति आत्मविश्वास में डूब जाने व मुगालते में रहने के कारण यह स्थिति पैदा हुई। बदनावर से अभी तक कोई निर्दलीय प्रत्याशी विधायक नहीं बना है। यदि अग्रवाल को यह मौका मिलता है तो वे पहले प्रत्याशी होंगे। अभी प्रचार अभियान में उनके साथ अनुभवी व उज्जवल छवि के कार्यकर्ताओं की काफी कमी रही। उन्हें मार्गदर्शन देती फिर भी उनके मैदान में रहने की चर्चा भोपाल तक लगातार हुई है। कांग्रेस व भाजपा प्रत्याशियों की जय पराजय निर्दलीय अग्रवाल व गोगपा के विक्रम सोलंकी को मिलने वाले मतों की संख्या पर भी निर्भर होगी। उनकी जीत को अति आत्मविश्वास भी रोक सकता है। यह परिणाम आने पर ही 11 तारीख को पता चलेगा कि इस बार त्रिकोणीय संघर्ष में कौन किस पर भारी रहा है।
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