ग्रामीण अंचल तक सिमटता जा रहा लोकपर्व संजा का महत्व




मनोज कवि-
बदनावर। संजा पर्व मालवा, निमाड़, राजस्थान, गुजरात के कई क्षेत्रों में कुमारी कन्याएँ गोबर से दीवार पर सोलह दिनों तक विभिन्न कलाकृतियाँ बनाती है तथा उसे फूल-पत्तियों से श्रंगारित करती है वर्तमान में संजा का रूप फूल-पत्तियों से कागज में तब्दील होता जा रहा है । 

संजा का पर्व आते ही लडकियाँ प्रसन्न हो जाती है । संजा को कैसे मनाना है | ये बड़ी लड़कियां छोटी लड़कियों को बताती है। शहरों में सीमेंट की इमारतें और दीवारों पर महँगे पेंट पुते होने, गोबर का अभाव, लड़कियों के ज्यादा संख्या में एक जगह न हो पाने की वजह, टी वी, इंटरनेट का प्रभाव और पढ़ाई पर ज़ोर की वजह से शहरों में संजा मनाने का चलन ख़त्म सा हो गया है । लेकिन गांवों /देहातो में पेड़ों की पत्तियाँ, तरह तरह के फूल, रंगीन कागज, गोबर आदि की सहज उपलब्धता से ये पर्व मनाना शहर की तुलना में आसान है। परम्परा को आगे बढ़ाने की सोच में बेटियों की कमी से भी इस पर्व पर प्रभाव पढ़ा है इसलिए कहा भी गया है कि बेटी है तो कल है किसी ने ठीक ही रचा है-

"आज शहर में भूली पड़ीगी है म्हारी संजा 
घणी याद आवे है गाँव की सजीली संजा 
अब बड़ी हुई गी पण घणी याद आवे गीत -संजा 
म्हारी पोरी के भी सिखऊँगी बनानी संजा 
मीठा -मीठा बोल उका व सरस गीत गावेगी संजा "

हमउम्र सहेलियों के साथ संजा गीत से गुलजार होती क्वार मास की शामों को और भी मनमोहक बना देती है। वहीं छोटे भाई भी प्रसाद खाने की लालसा में संजा के गीत गुनगुना लेते है और बहनों के लिए संजा को दीवारों पर सजाने में उनकी मदद करते है । संजा से कला का ज्ञान प्राप्त होता है, पशु -पक्षियों की आकृति बनाना और उसे दीवारों पर चिपकाना। गोबर से संजामाता को सजाना और किला कोट जो संजा के अंतिम दिन में बनाया जाता है, उसमें पत्तियों, फूलों और रंगीन कागज से सजाने पर संजा बहुत सुन्दर लगती है। लडकियाँ संजा के लोक गीत को गा कर संजा की आरती कर प्रसाद बाँटती हैं।

" संजा तू थारा घर जा 
थारी माय मारेगी की कुटेगी 
चाँद गयो गुजरात। … "
संजा माता जिम ले। … 
छोटी सी गाड़ी लुढ़कती जाए 
जी में बैठी संजा बाई जाए। … 

आदि श्रंगार रस से भरे लोक गीत जिस भावना और आत्मीयता से गाती हैं, उससे लोक गीतों की गरिमा बनी रहती है और ये विलुप्त होने से भी बचे हुए हैं। मालवा - निमाड़ की लोक परम्परा श्राध्द पक्ष के दिनों में कुंवारी लड़कियां माँ पार्वती से मनोवांछित वर की प्राप्ति के लिए पूजन-अर्चन करती हैं। संजा मनाने की यादें लड़कियों के विवाहोपरांत गाँव /देहातों की यादों में हमेशा के लिए तरोताजा बनी रहती है और यही यादें उनके व्यवहार में प्रेम, एकता और सामंजस्य का सृजन करती हैं। संजा सीधे- सीधे हमें पर्यावरण से, अपने परिवेश से जोड़ती है, तो क्यों न हम इस कला को बढ़ावा दें और विलुप्त होने से बचाने के प्रयास किए जाएँ। बीते कुछ वर्षों से उज्जैन में संजा उत्सव पर संजा पुरस्कार से सम्मानित भी किया जाने लगा है। साथ ही महाकालेश्वर में उमा साझी महोत्सव भी प्रति वर्ष मनाया जाता है।

आधुनिक समय में शहर की संजा गाँवो तक ही सीमित होती जा रही है। पुराने दिनों में घर घर सुबह शाम संजा के गीत सुनाई देते थे। किंतु अब गीत सुनने के लिए कान तरस रहे हे।
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